Tuesday, April 11, 2023

दिव्या by यशपाल

दिव्यादिव्या by यशपाल
My rating: 5 of 5 stars

यह इतनी शानदार और विलक्षण पुस्तक है। परन्तु इसकी संस्कृतनिष्ठ हिंदी को शब्दकोश की सहायता के बिना पढ़ना असंभव है। मैंने इसका गीतात्मक पाठ को प्रकट रूप से पढ़ते हुए भाषा का लययुक्त आनंद प्राप्त किया। हमारी विरासत, संस्कृति व सुंदर भाषा से हमें गर्वित होना चाहिए ।
यह उपन्यास ऐतिहासिक कथाओं का एक शानदार उदाहरण है जो बौद्ध धर्म और जाति-आधारित कर्मकांड वाले हिंदू धर्म के बीच फूट को दर्शाता है। यह आक्रमणकारी अप्रवासी यवनों (यूनानियों) और उस समय के द्विज 'भारतीयों' के बीच राजनीतिक संघर्ष को भी दर्शाता है।
कहानी के ऐतिहासिक संदर्भ के बारे में वर्णन मनोरंजक और बहुत ज्ञानवर्धक है। कथानक एक प्रतिभाशाली और लाड़-प्यार में पली उच्च-वर्ण की युवती के कष्टों के बारे में है: उसे उस समय प्रचलित सामाजिक दबावों - जैसे की वर्ग-भेद व नारी की अवस्था मात्र एक भोज्ञ-वस्तु का होना के प्रचलन के आगे झुकना पड़ता है। तत्कालीन समाज में प्रचलित दास प्रथा को सूचित करते हुए ‘जन्म का अपराध’ व वर्णव्यवस्था की कुरीतियों पर प्रश्न उठाया है जिसमें लेखक ने रूढ़िवादी परंपरा के अवगुण पर तीक्ष्ण प्रहार किया है। बौद्धकालीन परिवेश और संस्कृति की पृष्ठभूमि में निर्मित उपन्यास बौद्ध संस्कृति, समाज, कला और दर्शन की अविस्मरणीय गाथा को प्रस्तुत किया है।
कुछ रमणीय अंश
क्षत्रिय स्वर्ण-खचित शुभ वस्त्र धारण किये थे। ऊंची नाक के नीचे मूंछे दो बिच्छुओं के डंक की भांति गालों की ओर चढ़ी हुई थीं । उनके कानों, कंठ, भुजा एंड कलाइयों पर रत्नजटित आभूषण थे। विस्तृत वक्षस्थल से सूक्ष्म कटी तक शरीर चुस्त अँगरखों में मढ़े थे। कटि से जानु तक काँछ कसे अन्तरवासक। पिंडलियों और पाँव पादत्राणों में कसे हुए थे। कटी से रत्नजटित मूठ के खडक झूल रहे थे।
उत्सव में विशिष्ट परिधान में सजी कुलनारियों के आकर्षक रूप का बड़ा ही लालित्यपूर्ण चित्रांकन किया गया है
कुछ नारियों के प्रसाधन और वेश-विन्यास में विशेष लालित्य था। मुक्त-लड़ियों द्वारा विविध प्रकार से गुंथे गए उनके केशों पर पुष्पों के अर्धचंद्र किरीट शोभायमान थे। मस्तक, कान, कंठ, बाहुमूल, कलाई और अँगुलियों चन्द्रिका, तूलिका लेखन, कुण्डल, हार, माला, अंगद, वाले और अँगूठियों से सज्जित थे। उनके कन्धों पर अनेक बल खाये झीने उत्तरीय के नीचे मेरुदंड पर गाँठ बांधे कंचुक वस्त्र, सम्मुख वक्ष की ओर फेल का, सुचिक्कण वर्तुलों में उभर आये थे। ऊपर पुष्ट उरोज और पुष्ट नितम्ब। डमरू मध्य के समान कटी पर स्वर्ण की मेखलाएं रत्नजटित्त निविबंध से तीन लड़ियाँ में कटी, नितम्ब के मध्य एंड अधोभाग की परिक्रमा करवर्त्तुल आकारों को स्पष्ट कर रही थीं।
और उदहारण
इस समय अभ्यर्थना के आदेश का प्रयोजन जान कर उसका मन विरक्त हो उठा। स्वर्णखचित रक्त कौशेय से अपने गुम्फित केश बंधे माथे पर श्वेत चन्दन के खौर में रक्त-तिलक लगाए रुद्रधीर उसकी कल्पना में दिखने लगा। उसके उत्त्तरीय के नीचे यज्ञोपवित लटक रहा था परन्तु हाथ में खड्ग खींचे वह पृथुसेन को दिव्या के शिविका में कन्धा लगाने से बरज रहा था। ...

“बहुद्रष्टा, उदार, महापण्डित, धर्मस्थ का सम्पन्न प्रासाद.......विद्या और संस्कृति का श्रेष्ठ केन्द्र था । उस प्रासाद में श्रृति-स्मृति, दर्शन, न्याय और तर्क का मन्थन वर्णाश्रम नीति के पण्डितों, यवन दार्शनिकों और बौद्ध भिक्षुओं द्वारा मत-निर्णय और गोष्ठी-सुख के लिये भी निरंतर होता रहता है ।” ...

देवी मल्लिका ने भी संग्राम-यज्ञ में धन के बलि देकर सहयोग दिया था। उसके चतुश्शल में भी संगीत और नृत्य के मध्य में सैनिक कार्य और शासन से संभंध रखनेवाले राजपुरुषों में युद्ध का प्रसंग आरंभ हो जाता। वक्त और श्रोता हाथ में चषक लिए ललित-कला का लास्य भूल कर युद्ध की विभीषिका के विवेचन में आत्मविस्मृत हो जाते। जीवन के आनंद से जीवन के रक्षा के चिंता अधिक प्रबल हो जाती। सुरा का प्रभाव बढ़ने पर विवेचना प्रायः प्रलाप के रूप ले लेती। पृथुसेन सुनता और प्रलाप करने वाले की मूर्खता और कायरता से उद्धिग्न हो मौन रह जाता। ...

निद्रा भांग होने पर छाया ने देखा घाम फैल चुकी थी। विलम्ब तक सोने के लज्जा में वह वस्त्रों को संभलकर उठ कड़ी हुई। हेमन्त के तुहिन आवृत सूर्य के सुखद रंगीन किरणें गवाक्ष से आकर दिव्या के पीत मुख पर पड़ रही थीं। वह गाढ़ी निद्रा में थी। उसका श्वास गति से चल रहा था। स्वामिनी की निद्रा भांग होने की आशंका से आहाट न कर छाया कक्ष से निकली। स्वामिनी की गत रात्रि की वेदना का वृत्तान्त माँ धाता से कहने वह अन्तःपुर के उद्यान के उस पार आर्य घृति शर्मा के कक्ष की ओर गयी। ...

"शरीर नश्वर और अस्थायी है? देवी अमरता चाहती हो? अच्छा कहो, अपने चारों ओर जितने पदार्थ तुम देख पाती हो, उनमें से कितने सदा एक रूप, एक रास, एक गंध रहते हैं? जिसे तुम नाश कहती हो, वह केवल परिवर्तन है। अमरता का अर्थ है अपरिवर्तन। कल्पना करो, संसार में कोई परिवर्तन न हो? उस संसार में क्या सुख और आकर्षण होगा?"
कुछ क्षण विचार में मौन रहकर रत्नप्रभा बोली, "आर्य सत्य कहते हैं, अपरिवर्तनशील संसार सुखदायक न होगा !"
मारिश बोला, "और फिर मनुष्य अमर है। सहस्र-सहर वर्षों से चली आई मनुष्य के परम्परा ही उसकी अमरता है। ...

जीवन के उत्साह और आशा की नवविकसित मंजरी की भाँति रुप, सौरभ और स्फूर्ति का स्पंदन बरसाती दिव्या की मूर्ती उसकी कल्पना में जाग उठती। ...

समृद्ध जान शिविकाओं, रथों, और अश्वों पर संध्याविनोद के लिए पुष्करिणी, उद्यान अथवा नर्तकियों के स्थानों की ओर जा रहे थे ।
कहानी कुछ-कुछ Tess of the D'Urbervilles से मिलती जुलती है। एक त्रुटि दिखाई दी - Zeus यवनों के देवता थे, देवी नहीं ।

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