Monday, August 14, 2023

रामधारी सिंह 'दिनकर' कृत रश्मिरथी

रश्मिरथीरश्मिरथी by Ramdhari Singh 'Dinkar'
My rating: 5 of 5 stars

हाय, कर्ण, तू क्यों जन्मा था?
जन्मा तो क्यों वीर हुआ?
कवच और कुण्डल-भूषित भी
तेरा अधम शरीर हुआ।
धँस जाये वह देश अतल में,
गुण की जहाँ नहीं पहचान,
जाती-गोत्र के बल से ही
आदर पाते हैं जहाँ सुजान।
When I sometimes think that life has been unfair me, I use to feel helpless and tossed around like a piece of cork in a maelstrom of the sea of life. After reading Shivaji Sawant's मृत्युंजय and रश्मिरथी , I review the life of Karna and realize that he was one of the most unfortunate souls ever. Rejected by his natural mother, denied his heritage, spurned by the preceptor Drona, humiliated by Bhim and Kripacharya, deceitfully deprived of his twin divine boons, thwarted in the use of ‘Bhramastra’ by Parashuram, denied the opportunity to win the hand of Draupadi, ostracized by Bheeshma, even manipulated by Duryodhana for the latter’s selfish ambition, and finally killed in war in an underhand cowardly fashion. Yet he led a devoted family life, praying to the Sun (his Guru and parent), followed a life of Dharma and attained martyrdom that resounds down the ages. He has the last laugh at the expense of his arch-rival Arjun, since tomes have been written about Karna and Arjun (the apple of everyone’s eye and the cynosure of Drona) stays as a mythological footnote.
These are Krishna’s final words in this Ode to the Golden Warrior
मगर, जो हो, मनुज सुवरिष्ठ था वह।
धनुर्धर ही नहीं, धर्मिष्ठ था वह।
तपस्वी, सत्यवादी था, व्रती था,
बड़ा ब्रह्मण्य था, मन से यति था।

ह्रदय का निष्कपट, पावन क्रिया का,
दलित-तारक, समुद्धारक त्रिया का।
बड़ा बेजोड़ दानी था, सदय था।
युधिष्ठिर! कर्ण का अद्भुत ह्रदय था।

किया किसका नहीं कल्याण उसने?
दिए क्या-क्या न छिपकर दान उसने?
जगत के हेतु ही सर्वस्व खोकर।
मरा वह आज रण में निःस्व होकर।

उगी थी ज्योति जग को तारने को।
न जन्मा था पुरुष वह हारने को।
मगर, सब कुछ लूटा कर दान के हित,
सुयश के हेतु, नर-कल्याण के हित।

दया कर शत्रु को भी त्राण देकर,
ख़ुशी से मित्रता पर प्राण देकर,
गया है कारण भू को दीं करके,
मनुज-कुल को बहुत बलहीन करके।

युधिष्ठिर! भूलिए, विकराल था वह,
विपक्षी था, हमारा काल था वह।
अहा! वह शील में कितना विनीत था!
दया में, धर्म में कैसा निरत था !

समझ कर द्रोण मन में भक्ति भरिये,
पितामह की तरह सम्मान करिये।
मनुजता का नया नेता उठा है।
जगत से ज्योति का जेता उठा है!


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Sunday, August 13, 2023

हरिशंकर परसाई कृत प्रेमचंद के फटे जूते

प्रेमचन्द के फटे जूतेप्रेमचन्द के फटे जूते by Harishankar Parsai
My rating: 5 of 5 stars

उत्कृष्ट कटूपहास, शानदार व्यंग्यात्मक कहानियों और निबंधों का संग्रह। स्वतंत्र भारत के संदर्भ में लेखक भ्रष्टाचार, विदेशी सहायता - विशेषकर गेहूं तथा अन्य खाद्यन्न, चीन और पाकिस्तान से युद्ध का संकट, दुष्ट राजनेता और पाखंडी धार्मिक गुरु जैसे मुद्दों और दैनिक जीवन से अन्य प्रसंग को संबोधित करते हैं । इसमें एक प्रफुल्लित करने वाला मृत्युलेख, एक शरारती SF सूत, उस काल के हिंदी साहित्यिक परिदृश्य के कुछ अंश इत्यादि हैं । सरकारी दफ्तरों में भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी के प्रसंग में कृष्ण और सुदामा का लोमहर्षक मिलन होता है, जिसमें भेंट हेतु मुठ्ठीभर चावल श्री कृष्ण से पहले ही उनके पहरेदार हड़प लेते हैं ।
इस चित्र ने कहानियों के संग्रह के शीर्षक को प्रेरित किया प्रेमचंद जी के फटे जूते की दुर्दशा ध्यान से देखिए
description
कुछ उल्लेखनीय उदाहरण
चरण कमलों से मंच पर चढ़ा, कमल नयनों से लोगों को देखा, कर कमल से फीता काटा और मुख कमल से भाषण दे डाला। उन लोगों ने सिर्फ हाटों को कमल कहा था, मैंने शरीर भर को कमल बना लिया।…
शहर की राधा सहेली से कहती है "हे सखी, नल के मैले पानी में केंचुए और मेंढक आने लगे। मालूम होता है, सुहावनी मनभावनी वर्षाऋतु आ गयी।"
आगे वह 'श्याम नहीं आये' वगैरह प्राइवेट वाक्य बोलती होगी, जिनसे मुझे मतलब नहीं। विरहिणी मेघ नहीं देखती, नल खोलकर केंचुए और मेंढक देखती है। वर्षा का इससे विश्वसनीय संकेत दूसरा अब नहीं है। प्राकृतिक नियम बदल गए, ऋतुओं ने मर्यादा त्याग दी, मगर इस नल ने किसी भी वर्षाऋतु में केंचुए और मेंढक उगलने में कमी नहीं की।
न्यायलय, कोर्ट कचेहरी के तमाशे
अभी तक मैं सोचता था कि अर्जुन युद्ध नहीं करना चाहता था, पर कृष्ण ने उसे लड़वा दिया। यह अच्छा नहीं किया। अगर अर्जुन युद्ध नहीं करता, तो क्या करता? कचहरी जाता। जमीन का मुकदमा दायर करता। लेकिन वन से लौटे पाण्डव अगर जैसे-तैसे कोर्ट-फीस चुका भी देते, तो वकीलों की फीस कहाँ से देते, गवाहों को पैसे कहाँ से देते? और कचहरी में धर्मराज का क्या हाल होता? वे 'क्रॉस-एग्जामिनेशन' के पहले ही झटके में उखड़ जाते। सत्यवादी भी कहीं मुकदमा लड़ सकते! कचहरी की चपेट में भीम की चर्बी उतर जाती। युद्ध में अट्ठारह दिन में फैसला हो गया; कचहरी में अट्ठारह साल भी लग जाते। और जीतता दुर्योधन ही, क्योंकि उसके पास पैसा था। सत्य सूक्ष्म है; पैसा स्थूल है। न्याय-देवता को पैसा दिख जाता है; सत्य नहीं दिखता। शायद पाण्डव मुकदमा लड़ते-लड़ते मर जाते क्योंकि दुर्योधन पेशी बढ़ता जाता। पाण्डवों के बाद उनके बेटे लड़ते; फिर उनके बेटे। बड़ा उच्च किया कृष्ण ने जो अर्जुन को लड़वाकर अट्ठारह दिन में फैसला करा लिया। वरना आज कौरव-पाण्डव के वंशज किसी दीवानी कचहरी में वही मुकदमा लड़ते होते।
अंत में "मुक्तिबोध" को भावभीनी श्रद्धांजलि दी गयी है और लेखक की एक लघु आत्मकथात्मक रेखाचित्र के साथ यह रोचक संग्रह समाप्त होता है ।

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Monday, August 7, 2023

शिवाजी सावंत कृत "मृतुय्ञ्जय"

MrityunjayMrityunjay by Shivaji Sawant
My rating: 5 of 5 stars

वाह ! “मृतुय्ञ्जय” कितना भव्य महाकाव्य है - सूर्यपुत्र, कुन्तीपुत्र, महारथी, पराक्रमी, दानवीर कर्ण की अद्भुत कथा - स्वयं कर्ण, कुंती, वृषाली, शोण, दुर्योधन एवं श्री कृष्णा के दृष्टिकोण से यह रचित ७०० पृष्ठों का ग्रन्थ यद्यपि अत्यधिक विस्तृत है, फिर भी अत्यन्त रोचक है। भाषा की शुद्ध शैली अति मनमोहक है । कर्ण के दुर्भाग्यपूर्ण जीवन के बारे में रश्मिरथी (Hindi Poetic Novel): Rashmirathi में रामधारी सिंह 'दिनकर' ने लिखा है
हाय, कर्ण, तू क्यों जन्मा था?
जन्मा तो क्यों वीर हुआ?
कवच और कुण्डल-भूषित भी
तेरा अधम शरीर हुआ।
धँस जाये वह देश अतल में,
गुण की जहाँ नहीं पहचान,
जाती-गोत्र के बल से ही
आदर पाते हैं जहाँ सुजान।
समाज-की लज्जा से भयभीत अपनी माँ द्वारा जन्म लेते ही त्यागा; षड्यंत्रकारी द्रोणाचार्य (जो हमेशा कम प्रतिभाशाली अर्जुन के प्रति पक्षपाती थे) द्वारा अपमानित और तिरस्कृत; अर्जुन से प्रतिकूल तुलना, युद्ध-प्रारम्भ से पूर्व भीष्म द्वारा अपमानित और पदावनत; द्रौपदी द्वारा अपमानित; भीम द्वारा अपमानित, जातिवादी परशुराम द्वारा सघन परिश्रम व अडिग तप के पश्चात प्राप्त हुआ ब्रह्मास्त्र के उपयोग से वंचित रहना; महानतम अन्याय एक षड्यंत्र में छल से अपने पिता की दी गई दैवीय सुरक्षा - कवच और कुंडल का वरदान - कृष्ण-रुपी विष्णु एवं इंद्र द्वारा छीन लेना था । तथा अंत में रणभूमि में युद्ध के सत्रहवें दिन श्री कृष्ण की आज्ञा द्वारा ही अर्जुन द्वारा निहत्थे, रथ व अश्त्र शास्त्र रहित,असहाय इस महायोद्धा की निर्मम हत्या - पढ़कर ह्रदय दहल जाता है व अश्रु से नेत्र भर जाते हैं ।
इस कथानक को पढ़कर पांडवों के प्रति दृष्टिकोण परिवर्तित हो जायेगा, कर्ण व अश्वथामा से सहानुभूति उत्पन्न हो जाएगी, दुर्भाग्य वश उनकी यह स्थिति हुई। कर्ण का उपयोग दुर्योधन ने अपने स्वार्थ के लिए किया था। आरम्भ में दुर्योधन एक महान शक्तिशाली प्रतापी राजकुमार के रूप में सामने आता है, तदुपरांत, अपने चाचा शकुनि के दुष्प्रभाव से, एक षड्यंत्रकारी और असंतुलित शक्ति चाहने वाले व्यक्ति में परिवर्तित हो जाता है।

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Thursday, August 3, 2023

Smoke and Ashes by Amitav Ghosh

Smoke and Ashes: A Writer's Journey through Opium's Hidden HistoriesSmoke and Ashes: A Writer's Journey through Opium's Hidden Histories by Amitav Ghosh
My rating: 4 of 5 stars

A brilliant expose of the hypocrisy of the British and American governments and people, regarding the production and trade of opium in South East Asia and China.
Tagore says
It had gradually become clear that outside of Europe the torch of European civilization was not intended to light the way, but to start fires. That is why, one day, cannonballs and pellets of opium rained down together on the heart of China. Never in history has such an atrocity occurred before.
Here is the fervent protest of the Chines Prince Gong to the British diplomat Rutherford Alcock
All say that England trades in opium because she desires to work China’s ruin … the Chinese merchant supplies your country with his godly tea and silk, conferring thereby a benefit upon her, but the English merchant empoisons China with pestilent opium. Such conduct is unrighteous. Who can justify it? What wonder if officials and people say that England is wilfully working out China’s ruin?
Gets repetitive at times but still quite revelatory.

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