Friday, April 21, 2023

जयशंकर प्रसाद कृत स्कंदगुप्त

स्कंदगुप्तस्कंदगुप्त by जयशंकर प्रसाद
My rating: 3 of 5 stars

स्कंदगुप्त के समय भारत में वर्ण व्यवस्था आधारित समाज में बड़ी उपेक्षा थी। वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जातियों के बीच विभिन्न अंतर थे और यह अंतरफलक उनके आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों को संबोधित करते थे।
इस अंतर को कम करने के लिए धर्मीय आंदोलन भी चल रहे थे, जिसमें बौद्ध धर्म अपनी चर्चा कर रहा था। बौद्ध धर्म ने वर्ण व्यवस्था को खत्म करने का प्रयास किया था और इस लिए वह ब्राह्मण वर्ग से टकराता था।
इस समय भारत में हिंदू और बौद्ध धर्म के बीच विवाद थे। स्कंदगुप्त के समय में उन्होंने अपनी सामर्थ्यशाली राजनीति द्वारा इस विवाद को समाप्त किया था। उन्होंने बौद्ध धर्म को समर्थन देते हुए वर्ण व्यवस्था को संरक्षित रखा था।
कुछ स्मरणीय उदहारण
अमृत के सरोवर में स्वर्ण-कमल खिल रहा था, भ्रमर बंसी बजा रहा था, सौरभ और पराग की हलचल थी। सूर्य के किरणें उसे चूमने को लौटती थीं, संध्या में शीतल चांदनी उसे अपनी चादर से ढँक देती थी। उस मधुर सौंदर्य - उस अतींद्रय जगत के साकार कल्पना की और मैंने हाथ बढ़ाया ही कि था वहीं सपना टूट गया।…
युद्ध क्या ज्ञान नहीं? रुद्र का शृंगीनाद, भैरवी का तांडव नृत्य और शास्त्रों का वाद्य मिलकर एक भैरव-संगीत की सृष्टि होती है। जीवन के अंतिम दृश्य को जानते हुए, अपनी आँखों से देखना, केवल-रहस्य के चरम सौंदर्य की नग्न और भयानक वास्तविकता के अनुभव-केवल सच्चे वीर-हृदय को होता है, ध्वंसमयी महामाया प्रकृति का वह निरंतर संगीत है। उसे सुनने के लिए हृदय में साहस और बल एकत्र करो। अत्याचार के श्मशान में ही मंगल का शिव-का, सत्य-सुन्दर संगीत का समारम्भ होता है…
देवसेना: पवित्रता का माप है, मलिनता, सुख का आलोचक है दुःख, पुण्य की कसौटी है पाप। विजया !आकाश के सुन्दर नक्षत्र आँखों से केवल देखे ही जाते हैं, वे कुसुम-कोमल हैं कि वज्र-कठोर-कौन कह सकता है। आकाश में खेलती हुई कोकिल के करुणामयी तान का कोई रूप है या नहीं, उसे देख नहीं पाते। शतदल और पारिजात का सौरभ बिठा रखने की वास्तु नहीं। परन्तु इस संसार मैं नक्षत्र से उज्जवल-किन्तु कोमल-स्वर्गीय संगीत की प्रतिमा तथा स्थायी कीर्ति-सौरभवाले प्राणी देखे जाते हैं। उन्हीं से स्वर्ग के अनुमान कर लिया जा सकता है। …
धातुसेन: भारत समग्र विश्व का है, और सम्पूर्ण वसुंधरा इसके प्रेम-पाश में आबद्ध है। अनादि काल से ज्ञान की, मानवता की ज्योति वह विकीर्ण कर रहा है। वसुंधरा का ह्रदय भारत किस मूर्ख को प्यारा नहीं है ? तुम देखते नहीं की विश्व का सबसे ऊंचा श्रृंग इसके सिरहाने, और गंभीर तथा विशाल समुद्र इसके चरणों के नीचे है ? एक-से-एक दृश्य प्रकृति ने अपने घर में चित्रित कर रखा है ।…
मुद्गल: राजा से रंक और ऊपर से नीचे, अभी दुर्वृत्त दानव, स्नेह संवलित मानव, कहीं वीणा की झंकार, कहीं दीनता का तिररस्कर।…
देवसेना: संगीत सभा का अंतिम लहरदार और आश्रयहीन तान, धूपदान की एक क्षीण गंध-रेखा, कुचले हुए फूलों का म्लान सौरभ और उत्सव के पीछे का अवसाद, इन सबों के प्रतिकृति मेरा क्षुद्र नारी-जीवन!


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