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यह कथा स्वतंत्रता के पूर्व व तुरंत पश्चात का समय हमारे देश की दशा का एक अति उत्तम उदहारण है। यहां विशेष नागरिकों द्वारा गवर्नर पद, विदेश में राजदूत की नियुक्ति, किसी राष्ट्रीय संस्था के अध्यक्ष पद (gubernatorial position) की लालसा के लिए किये गए सभी निंदनीय साजिशों व षडयंत्रों और अन्य विशिष्ट लोगों से पैरवी (lobbying) करने का विस्तृत वर्णन है।
इसके अतिरिक्त आचार्य विनोभा भावे द्वारा स्थापित भूदान व् ग्रामदान आन्दोलनों का गहराई से विश्लेषण भी है - दोनों सफलताएं एवं त्रुटियां।
श्रीलाल शुक्ल की अपनी निराली शैली में देशवासियों में प्रचलित ढोंग-ढपोसले का मार्मिक चित्रण
अपने देशवासियों का स्वभाव है कि आदर्श की पुरानी गाथाएँ सुनते सुनते वे प्रतीक तो तथ्य मानने लगते हैं और आदर्श आचरण के प्रतीकात्मक कर्मकांड से वास्तविक ऐतिहासिक परिणामों की उम्मीद करने लगते हैं …।हमारी सांस्कृतिक विविधता और विरासत को उपेक्षित करने और हमारी बौद्धिक क्षमताओं को नगण्य मानने का पाखंड, पश्चिमी संस्कृति का अनुकरण करने का दयनीय व्यवहार
जैसे, अवांछित जनसंख्या का समाधान महात्मा गाँधी अखंड ब्रह्मचर्य में खोजने लगे थे। सारा विचार खुले तौर पर इतना हवाई है। लगता है, आप पूरे समाज की सामान्य समझ का अपमान कर रहे हैं।
कुछ वैसा ही हाल अपने भूदान यज्ञ का है। खुली हवा और पानी की तरह साड़ी भूमि गोपाल की है! माना इससे कोई झगड़ा नहीं ! पर आदिम युग से आज तक भूमि की व्यवस्था को लेकर जो कुछ उल्टा-पुल्टा, सही-गलत किया गया है और आज भी कानूनी ताकत के सहारे जमीन के स्वामित्व की जो हैसियत है, उसे क्या एक आदर्श वाक्य के उच्चारण भर से आप ख़त्म कर देंगे?
बी. ए. की डिग्री के लिए कुंवर जयंतीप्रसादसिंह ने देश के एक ऐसे विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया था जिसे भारत का ऑक्सफ़ोर्ड कहा जाता था। (तब हमने प्रशंसा के ऐसे ही मापदंड बना रखे थे: उपन्यासकार वृंदावनलाल वर्मा को आलोचकगण हिंदी का सर वॉटर स्कॉट कहते थे, महाकवि कालिदास को भारत का शेक्सपियर, यहां तक कि ठा. गुरुभक्तसिंह 'भक्त' कैसे नवोदित कवि को हिंदी का वर्ड्सवर्थ!)धार्मिक तर्कों का दुरुपयोग और धर्म की निष्फलता
आँखों में वाशिंगटन का सपना न होता तब भी वे इस भीड़ को देख नहीं सकते थे। हर जटिल मानवीय त्रासदी को सुलभ मुहावरों और सैद्धांतिक शब्दजाल में डुबो देने की जो सहज क्षमता हमारे सत्तारूढ़ राजनीतिज्ञों में आ जाती है, वह उनमें बहुत पीला आ चुकी थी। वह यही क्षमता है जिसके सहारे हम आदिवासियों को सिर्फ लोककला के साथ, खेतिहर मजदूरों को प्रजातंत्र के सजक प्रहरी के रूप में या शोषित महिला वर्ग को भविष्य की क्रान्तिदर्शी चेतना बना कर रख देते हैं और उनकी समस्याओं से निगाह फेर लेते हैं। सत्तारूढ़ों के इस अंधेपन को हासिल करने के लिए अब उन्हें खुली आँखों में कोई दिलफरेब सपना पाले की ज़रूरत न रही थी।
स्पष्ट था कि निर्मल भाई की प्रवृत्ति उन समन्वयवादी धर्मोपदेशकों की थी जो विभिन्न धर्मों की अलग-अलग आस्था-सम्बन्धी स्थापनाओं, पौराणिक मान्यताओं, कर्मकांडों और दैनंदिन व्यवहार की असमानताओं को नज़रअंदाज़ कर देते हैं और सिर्फ नैतिक मूल्यों की समानता का हवाला देकर घोषणा करते हैं कि सारे धर्म एक हैं। वे भूल जाते हैं कि अपने समग्र रूप में सारे धर्म आज मानव समाज में पारस्परिक घृणा, हिंसा और असहिष्णुता की पौधशाला बने हुए हैं ।और अंत में, व्यक्तिगत स्तर पर यह एकतरफ़ा प्रेम (unrequited love) की कहानी भी है।
अत्यंत पठनीय।
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