Sunday, August 13, 2023

हरिशंकर परसाई कृत प्रेमचंद के फटे जूते

प्रेमचन्द के फटे जूतेप्रेमचन्द के फटे जूते by Harishankar Parsai
My rating: 5 of 5 stars

उत्कृष्ट कटूपहास, शानदार व्यंग्यात्मक कहानियों और निबंधों का संग्रह। स्वतंत्र भारत के संदर्भ में लेखक भ्रष्टाचार, विदेशी सहायता - विशेषकर गेहूं तथा अन्य खाद्यन्न, चीन और पाकिस्तान से युद्ध का संकट, दुष्ट राजनेता और पाखंडी धार्मिक गुरु जैसे मुद्दों और दैनिक जीवन से अन्य प्रसंग को संबोधित करते हैं । इसमें एक प्रफुल्लित करने वाला मृत्युलेख, एक शरारती SF सूत, उस काल के हिंदी साहित्यिक परिदृश्य के कुछ अंश इत्यादि हैं । सरकारी दफ्तरों में भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी के प्रसंग में कृष्ण और सुदामा का लोमहर्षक मिलन होता है, जिसमें भेंट हेतु मुठ्ठीभर चावल श्री कृष्ण से पहले ही उनके पहरेदार हड़प लेते हैं ।
इस चित्र ने कहानियों के संग्रह के शीर्षक को प्रेरित किया प्रेमचंद जी के फटे जूते की दुर्दशा ध्यान से देखिए
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कुछ उल्लेखनीय उदाहरण
चरण कमलों से मंच पर चढ़ा, कमल नयनों से लोगों को देखा, कर कमल से फीता काटा और मुख कमल से भाषण दे डाला। उन लोगों ने सिर्फ हाटों को कमल कहा था, मैंने शरीर भर को कमल बना लिया।…
शहर की राधा सहेली से कहती है "हे सखी, नल के मैले पानी में केंचुए और मेंढक आने लगे। मालूम होता है, सुहावनी मनभावनी वर्षाऋतु आ गयी।"
आगे वह 'श्याम नहीं आये' वगैरह प्राइवेट वाक्य बोलती होगी, जिनसे मुझे मतलब नहीं। विरहिणी मेघ नहीं देखती, नल खोलकर केंचुए और मेंढक देखती है। वर्षा का इससे विश्वसनीय संकेत दूसरा अब नहीं है। प्राकृतिक नियम बदल गए, ऋतुओं ने मर्यादा त्याग दी, मगर इस नल ने किसी भी वर्षाऋतु में केंचुए और मेंढक उगलने में कमी नहीं की।
न्यायलय, कोर्ट कचेहरी के तमाशे
अभी तक मैं सोचता था कि अर्जुन युद्ध नहीं करना चाहता था, पर कृष्ण ने उसे लड़वा दिया। यह अच्छा नहीं किया। अगर अर्जुन युद्ध नहीं करता, तो क्या करता? कचहरी जाता। जमीन का मुकदमा दायर करता। लेकिन वन से लौटे पाण्डव अगर जैसे-तैसे कोर्ट-फीस चुका भी देते, तो वकीलों की फीस कहाँ से देते, गवाहों को पैसे कहाँ से देते? और कचहरी में धर्मराज का क्या हाल होता? वे 'क्रॉस-एग्जामिनेशन' के पहले ही झटके में उखड़ जाते। सत्यवादी भी कहीं मुकदमा लड़ सकते! कचहरी की चपेट में भीम की चर्बी उतर जाती। युद्ध में अट्ठारह दिन में फैसला हो गया; कचहरी में अट्ठारह साल भी लग जाते। और जीतता दुर्योधन ही, क्योंकि उसके पास पैसा था। सत्य सूक्ष्म है; पैसा स्थूल है। न्याय-देवता को पैसा दिख जाता है; सत्य नहीं दिखता। शायद पाण्डव मुकदमा लड़ते-लड़ते मर जाते क्योंकि दुर्योधन पेशी बढ़ता जाता। पाण्डवों के बाद उनके बेटे लड़ते; फिर उनके बेटे। बड़ा उच्च किया कृष्ण ने जो अर्जुन को लड़वाकर अट्ठारह दिन में फैसला करा लिया। वरना आज कौरव-पाण्डव के वंशज किसी दीवानी कचहरी में वही मुकदमा लड़ते होते।
अंत में "मुक्तिबोध" को भावभीनी श्रद्धांजलि दी गयी है और लेखक की एक लघु आत्मकथात्मक रेखाचित्र के साथ यह रोचक संग्रह समाप्त होता है ।

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