Sunday, February 18, 2024

यशपाल कृत झूठा सच द्वितीय खंड (देश का भविष्य)

झूठा सच : देश का भविष्य [Jhootha Sach: Desh ka Bhavishya]झूठा सच : देश का भविष्य [Jhootha Sach: Desh ka Bhavishya] by यशपाल
My rating: 4 of 5 stars

कनक और भाई-बहन तारा व जयदेव की कहानी आगे बढ़ती है। विभाजन की पीड़ा और बाद में नव-स्वतंत्र भारत में उनके संघर्ष पश्चिम से पूर्व तक विस्थापित व्यक्तियों के प्रतिनिधि हो सकते हैं। दासत्व के अंधेरे के बाद स्वतंत्रता की सुबह - एक नए राष्ट्र के खूनी जन्म से लोगों को कई आकांक्षाएं थीं। लेकिन धीरे-धीरे उनकी आशाएं धराशायी हो जाती हैं क्योंकि भ्रष्टाचार सरकारी नौकरशाही और दलाल राजनेताओं के माध्यम से अपने जाल को फैला देता है।
कांग्रेसियों ने गाँधी जी से एक ही बात सीख ली है कि चाहे जिस कड़की या स्त्री के कंधे पर हाथ रख लें। सभी अपने को राष्ट्रपिता समझने लगे हैं
It is a time for enterprising opportunists to set up business and industries. Nepotism, bribery prevails
सभी राज्यों की जनता शाशन में निधड़क कुनबापरवरी, नोच-खसोट और धाँधली से निराश और खिन्न हो रही थी। अंग्रेजी सरकार के पुराने रायबहादुर और खैरख्वाह अमन-सभाई और सरकारी अमलदारी से लाभ उठाने लोग कांग्रेस के मेंबर बन कर सफ़ेद नोकीली टोपी पहनने लगे थे। अब कांग्रेस का चंदा चार-चार आने और रुपए-रुपए की रसीदों से इकठ्ठा नहीं किया जाता था। चुनाव फण्ड में चंदा मिलों और कंपनियों से बीस-चालीस हजार और लाख-दो लाख रुपए के चेकों से आता था। कांग्रेस से सम्बन्ध रखने वाले जो लोग चार साल से सौ-सवा सौ की नौकरियों से निर्वाह कर रहे थे, अब अपने सम्बन्धी के मंत्री बन जाने या किसी महत्वपूर्ण कमेटी का मेंबर बन जाने पर जहाँ-तहाँ हजार-बारह सौ पाने लगे थे। मंत्रियों के मेट्रिक भी पास न सकने वाले सुपूत, सरकारी विभागों के अध्यक्ष बन कर हजार रुपए मासिक से भी संतुष्ट न थे। मंत्रियों के दामादों के लिए मैनेजिंग डायरेक्टर से काम कोई पद सोचा ही नहीं जा सकता था।

लोग धारासभा के सदस्यों (मेंबर ऑफ़ लेजिस्लेटिव असेम्ब्ली) को एम्. एल. ए. न कह कर घृणा से 'मैले' लोग कहने लगे थे।
Indictment on Gandhi and his childish puerile attempts at achieving independence
"और तुम्हारी कांग्रेस क्या करती रही? गाँधी जी क्या करते रहे? पहले नामिलवर्तन (असहयोग) में हजारों लड़कों के स्कूल-कालेज छुड़वाये, हजारों लोगों की नौकरियाँ छुड़वाईं और लाखों डंडे खाकर जेल गए और तुम्हारे बापू को लगा - ओह, हिमालयन ब्लंडर हो गयी। आंदोलन वापस ले लिया। पहले विदेशी कपडे की होली जलवानी शुरू की, उसे बंद किया। नमक सत्याग्रह किया और बंद किया। जंगल सत्याग्रह किया, लगान न देने का आंदोलन चलाया और बंद किया। कॉउन्सिलों का बायकाट किया, फिर कौंसिलों में गए। राउंड-टेबल कांफ्रेंस का बायकाट किया, फिर उसमें भी गए। पहले जंग का बायकाट नामुनासिब बताया, फिर उसी जंग का बॉयकॉट किया। पहले पार्टीशन की मुखालफत की फिर उसे कबूल किया। गाँधी और कांग्रेस के कब, कितनी बार नीति नहीं बदली? ... तुम्हारी कांग्रेस का तो गोल (लक्ष्य) ही चेंज होता रहा है। कभी 'डोमिनियन स्टेटस 'कभी 'फुल फ्रीडम अंडर द एम्पायर' कभी 'इंडिपेंडेंस' कभी 'रिपब्लिक' कभी 'रामराज' कभी 'कैपिटलिज्म' कभी 'सोशलिज्म' !
The latter part of the book starts to dawdle with the love affairs of the protagonists, but the ending is on an optimistic note
अब तो विश्वास करोगे, जनता निजीव नहीं है। जनता सदा मूक भी नहीं रहती। देश का भविष्य नेताओं और मंत्रियों की मुठ्ठी में नहीं है, देश की जनता के हाथ में है।
Just one small extract form the middle of the book when a train overladen with refugees struggles to leave a station
इंजन ने चीख-चिंघाड़, गर्जन-तर्जन द्वारा बोझ बहुत अधिक होने की शिकायतें कीं, क्रोध और बेबसी में बहुत-सी फुंकारों से धूएँ के बादल चोदे। फिर लाचार हो गाड़ी को धीमे-धीमे खींचना शुरू किया। कुछ दूर चलकर गाड़ी की गति ढचर टाँगे-रिक्शा के बराबर हो गयी।
एक विशाल परिदृश्य पर एक मनोरंजक कथा, महाकाव्य।

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