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एक तथाकथित 'सुवर्ण' होने के नाते मेरा सिर शर्म से झुक जाता है। निम्नलिखित उद्धरण हिंदू धर्म की निंदनीय जाति-व्यवस्था तहत पाखंड का सार प्रस्तुत करता है
इसे जस्टिफाई करने के लिए अनेक धर्मशास्त्रों का सहारा वे जरूर लेते हैं। वे धर्मशास्त्र जो समता, स्वतंत्रता की हिमायत नहीं करते, बल्कि सामंती प्रवृत्तियों को स्थापित करते है।वर्ण संस्था व ब्राह्मणवाद का कितना कठोर और कटु अभियोग है । अफ़सोस! हम भारत में इस उलझन, इस दुष्ट जाल, इस दलदल, इस जाति-पांति के चक्रव्यूह से कब बाहर निकलेंगे?
तरह-तरह के मिथक रचे गए - वीरता के, आदर्शों के। कुल मिलाकर क्या परिणाम निकले?
पराजित, निराशा, निर्धनता, अज्ञानता, संकीर्णता, कूपमंडूकता, धार्मिक जड़ता, पुरोहितवाद के चंगुल में फंसा, कर्मकांड में उलझा समाज, जो टुकड़ों में बँटकर, कभी यूनानीओं से हारा, कभी शकों से। कभी हूणों से, कभी अफ़ग़ानों से, कभी मुगलों से, फ्रांसीसियों और अंग्रेज़ों से हारा, फिर भी अपनी वीरता और महानता के नाम पर कमजोर और असहायों को पीटते रहे। घर जलाते रहे। औरतों को अपमानित कर उनकी इज़्ज़त से खेलते रहे। आत्मश्लाघा में डूबकर सच्चाई से मुँह मोड़ लेना, इतिहास से सबक न लेना, आखिर किस राष्ट्र के निर्माण के कल्पना है?
मात्र India का नाम भारत करने से कुछ मूल सामाजिक परिवर्तन नहीं आने वाला है। सम्भवतः सार्वभौमिक शिक्षा से ही इसका समाधान होने की सम्भावना है।
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