Friday, March 24, 2023

सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' द्वारा रचित अज्ञेय की सम्पूर्ण कहानियाँ

Ageya Ki Sampurna KahaniyanAgeya Ki Sampurna Kahaniyan by सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय'
My rating: 5 of 5 stars

अज्ञेय द्वारा लिखित सभी कहानियों का संकलन । कहानियों की विस्तृत श्रृंखला है - विषयों में विस्तृत, समय में विस्तृत और घटनाओं में विस्तृत। विषयों में युद्ध के समय अंतर-मानवीय संबंध, संघर्ष और बलिदान शामिल हैं; हानि की कहानियाँ - आदर्शों की हानि, मित्रों और साथियों की हानि, अहंकार की हानि; एकतरफा प्यार, धार्मिक संघर्ष, गरीबी/बेरोजगारी, विश्वासघात, जासूसी, अनाथ, वर्ग-संघर्ष, शरणार्थी, विकलांग व्यक्ति, भिखारी - संक्षेप में, मानव अनुभव की सरगम
घटनाओं में बॉक्सर विद्रोह / स्वतंत्रता संग्राम, सन यात सैन और १९११ की Xinhai क्रांति, किंग राजवंश को उखाड़ फेंकने के लिए, १९१९-२२ में ग्रीको-तुर्की युद्ध, १९३३ की क्यूबा क्रांति और Gerardo Machado y Morales को उखाड़ फेंकना, भारत के बाद विभाजन के दंगे शामिल हैं।
आजादी स्थानिक रूप से, कहानियाँ क्यूबा, रूसी स्टेप्स, हांगकांग, पेकिंग, ग्रीस, तुर्की, नागालैंड, मेघालय, कश्मीर, उत्तराखंड (भीमताल, चकराता) में स्थित हैं।
कुछ कहानियाँ रहस्यमयी हैं कुछ अलंकारिक हैं और कई में व्यभिचारी रंग है (जैसा कि शेखर: एक जीवनी - 1 में देखा गया है), लेकिन सभी अत्यंत पठनीय हैं।
अनुप्रास अलंकार के निम्न सुन्दर उदाहरण:
...मैं तुमसे प्रेम करता था ! वह प्रेम ही वासना था, कलुषित, कलंकित, कुत्सित।
...क्रांति विपथगा, विध्वंसिनी है, विद्ग्धकारिणी है।
...उसकी आशंकाएं मिटने लगीं, और उस पर छाने लगा अतिशय आत्मदान का आनन्दमय उन्माद
...जो जन्म के समय से वंचित, छलित, विवस्त्र, विवृत,और विदिग्ध थे
...हमारे निरीह, निःस्नेह, नीरव हृदयों में
...मृत्यु की अगाध,अच्छेद्य अंतिमता की छाप
...मृत्यु के अंतिम, अमोघ आघात से भी अधिक महत्वपूर्ण है?
कुछ अन्य सुन्दर गद्यांश
...न जाने कितनी बार शिशिर ऋतु में मैने अपनी पर्णहीन अनाच्छादित शाखाओं से कोहरे की कठोरता को फोड़कर अपने नियंता से मूक प्रार्थना की है; न जाने कितनी बार ग्रीष्म में मेरे जड़ों के सूख जाने से तृषित सहस्रों पत्र-रूप चक्षुओं से में आकाश की ओर देखता रहा हूँ; न जाने कितनी बार हेमंत के आने पर शिशिर के भावी कष्टों की चिंता से में पीला पड़ गया हूँ; न जाने कितनी बार वसंत, उस आह्लादक, उन्मादक वसंत में, नींबू के परिमल से सुरभित समीर में मुझे रोमांच हुआ है और लोमवत मेरे पत्तों ने कम्पित होकर स्फीत सरसर ध्वनि करके अपना हर्ष प्रकट किया है।
...उसके शरीर में लावण्य की दमक थी, मुँह पर सौंदर्य की आभा थी, होंठों हुई, विचारशील मुस्कान थी। किन्तु उसकी आँखें! उनमें अनुराग, विराग, क्रोध, विनय, प्रसन्नता, करुणा, व्यथा, कुछ भी नहीं था, थी केवल एक भीषण, तुषारमय, अथाह ज्वाला!
उसकी आकृति, उसका वर्ण, उसकी बोली, मुझे कुछ भी याद नहीं आता, केवल वे दो प्रदीप्त बिम्ब पड़ते थे... रात्रि के अंधकार में जिधर आंखें फेरता हूँ, उधर ही, स्फटिक मणि की तरह, नीले आकाश में शुक्र तारे की तरह, हरित ज्योतिमय उसके वे विस्फारित नेत्र निर्निमेष होकर मुझ पर अपनी दृष्टि गड़ाये रहते हैं...
...नदी के ऊपर एक धुंध छाने लगी और धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगी। कुछ देर में उसी बादल में सूर्य ने उदास होकर मुँह छिपा लिया। बादल में अरुणाई नहीं आयी, एक श्वेत पर्दा-सा आकाश पर तन गया, और उसके ऊपर जमुना-किनारे की एक मिल की चिमनी से उठता हुआ धुआं कुछ लिखत लिखने लगा।
..."शैतान के चार सहायक हैं : कलह, अकाल, हिंसा और मृत्यु। और यह चारों अपना उग्रतम रूप धारण किये, हमारे इस अभागे समूह में नृत्य कर रहे हैं ... कोई भूख से या श्रम से क्लांत होकर गिर पड़ता है, तो उसे कोई उठाने वाला नहीं मिलता , - लोग उसे रौंदते हुए चले जाते हैं ... लोगों के आदर्श के लिए यह स्थान नहीं है - यह मानव की प्राचीनतम असभ्य और असंस्कृत वासनाओं का संघर्ष है ...
एक पत्थर का बुलबुला था, ठोस, अपरिवर्तित, मुर्दा। किन्तु बुलबुला होने के कारण वह जीवन की निरंतर परिवर्तनशीलता, विचित्रता, रंगीनी और क्षुद्र नश्वरता का द्योतक बना रहता था। वह चिन्ह था अनुभूति का, प्रेम का, उत्साह का, किन्तु उसकी वास्तविकता थी छलना, वेदना, वज्र कठोरता, मानव जीवन का नंगापन ...
...उसकी किन-किन सदभिलाषाओं को, उच्चतम आकांक्षाओं, उत्सर्ग - चेष्टाओं की व्युत्पत्ति पतित-से-पतित, गर्हित-से-गर्हित, जघन्यतम धातुओं से सिद्ध कर देंगे ।
...चीड़ वृक्षों में कवि चलती है तो उसक स्वर ऐसा होता है, या कि वहाँ किसी जल-प्रपात को देखकर जीवन की नश्वरता का, या अजस्रता का, अथवा प्रेम की अचल एकरूपता का, या अस्थायित्व का, या अपनी-अपनी रूचि के अनुसार ऐसी ही किसी बात का स्मरण हो आता है
...आकाश में बादल के छोटे-छोटे टुकड़े मँडरा रहे थे। उनमें एक ओछा सौंदर्य था, शक्तिहीन और दर्पहीन - वे बरस चुके थे। और वे मानो एक प्रकार के छिछोरेपन से जमुना के जल में, अपना रंगीन प्रतिबिम्ब देखकर मुस्कुरा रहे थे। ...
...यदि ईश्वर प्रत्येक प्रार्थना की अत्यन सूक्ष्म काल में ही पूर्ती कर डाले, तो कुछ ही दिनों में उसका अस्तित्व ही मिट जाए। उसका अस्तित्व ही इस बात पर निर्भर करता है की आकांक्षा के समय कुछ न मिले, उपभोग के समय दारिद्रय हो, विरक्त में लोभ हो; की वे याचना के समय दिवालिया और समृद्धि के समय दयालु हों
...यही है मानवता का जीवन - यह अन्धकार में अशांति, उन्माद में जलन, विश्वास में अनिश्चय, सम्पन्नता में विद्रोह; रात्रि की प्रशांत गति में यह आपूर्ति और ललकार
...उन आँखों ने उन्नीस वसंत देखे थे, उन्नीस बार वसंत के सुन्दर स्वपन का पावस के जल से सींचे जाते और शरद की परिपक्वता में फलित होकर भी शिशिर की तुषार-धवल कठोरता में लुट जाते देखा है;
...उसकी आवाज़ में रास से बढ़कर कुछ एक अजीब कम्पन-सा था, जो वयःसंधि की भर्राई हुई ध्वनि के सम्मिश्रण से और अधिक आकर्षक हो गया था।
...पक्षियों का कूजन, आकाश की लालिमा, शांति और लोवलेंटा की अनुभूति - शंघाई में कुछ भी नहीं था। शंघाई के संध्या कृत्रिम और कर्कश राव से, कृत्रिम एंड कठोर प्रकाश से, कृत्रिम सुख और विषय-लिप्सा से भरी हुई थी। मनुष्य-रचित सभ्यता की विराट चक्की मैं नैसर्गिकता पीस चुकी थी और उसकी धूल से अस्वाभाविक और विभीत्स लालसाओं की तृप्ति के लिए उपकरण तैयार किये जा रहे थे।
क्या कवि कविता लिखने से पहले उसे लिखने के विचार में और उसके अनुकूल उसके झुकाव में ही इतना तल्लीन नहीं हो सकता है की कविता के अभिव्यक्ति एक अकिंचन, आकस्मिक, द्वैतीयिक वस्तु हो जाए?
...इधर जहाँ बहुत से निहत्थे लोगों ने किसी समृद्ध राज-कर्मचारी के एक घर से एक मोटा-सा सूअर निकला है और उसे कच्चा ही काट- काट कर, नोच-नोचकर खा रहे हैं; भूनने के लिए भी नहीं रुक सकते, तथापि आग पास ही जल रही है।
और उसके दबाव से शरीर भी जैसे टूटते-से थे,थकित-चकित-क्लांतर-से होते थे, पर फिर भी ढीलना नहीं चाहते थे, तने-ही-तने रहना चाहते थे, अशान्त,अश्लथ, खंडित, असंकुचित, अपरावर्त
...बाढ़ उतरेगी तो फिर मादल गूँजेगे और मृदंग गामक लेंगे और ऋतुस्नाता की भांति कांतिमान द्वीप-भूमि मेमनो की मिमियाती हंसी से मुखरित हो उठेगी
...और, कोई और गहरे देखता तो अनुभव करता की सहसा उसके मन पर भी कुछ शिथिल और तंद्रामय छा गया है, जिससे उसकी इन्द्रियों के ग्रहण-शीलता तो ज्यों-की-त्यों रही है पर गृहीत छाप को मन तक पहुँचाने और मन को उद्वेलित करने की प्रणालियाँ रुद्ध हो गयीं हैं
...स्त्रियाँ विश्राम नहीं करतीं, क्योंकि वे शायद काम नहीं करतीं। वे कुछ करतीं ही नहीं ... वे शायद होती ही नहीं। बालिका से किशोरी, कुमारी से पत्नी, बेटी से माँ, एक निस्संग आत्मा से एक परिगृहीत कुनबा - वे निरंतर कुछ-न-कुछ होती ही चलती हैं। क्योंकि वे हैं कुछ नहीं, वे केवल होते चलने का, बनने में नष्ट होते चलने का, या कि कह लो, नष्ट होते रहने में बनने का, दूसरा नाम हैं।
संग्रह की सभी कहानियों को पढ़ने और उनका स्वाद लेने में मुझे पूरा एक महीना लग गया, लेकिन यह समय अच्छी तरह से व्यतीत हुआ और सुंदर हिंदी गद्य पढ़ने के आनंद के साथ-साथ आध्यात्मिक और मानसिक ज्ञान में वृद्धि हुई।।

View all my reviews

No comments:

Post a Comment